उच्चारणाचार्य १०८ श्री विनम्रसागर जी महामुनिराज ससंघ के पावन सान्निध्य में  अष्टान्हिका महापर्व  के अवसर पर  श्री १००८ सिद्धचक्र महामंडल विधान  दिनांक  २९ अक्टूबर से ५ नवंबर  तक आयोजित होगा। स्थान :  इंडो किड्स स्कूल, वर्धमान मांगलिक भवन के पास, तिलक नगर, इंदौर। उच्चारणाचार्य १०८ श्री विनम्रसागर जी महामुनिराज ससंघ के पावन सान्निध्य में  अष्टान्हिका महापर्व  के अवसर पर  श्री १००८ सिद्धचक्र महामंडल विधान  दिनांक  २९ अक्टूबर से ५ नवंबर  तक आयोजित होगा। स्थान :  इंडो किड्स स्कूल, वर्धमान मांगलिक भवन के पास, तिलक नगर, इंदौर। 

जीवन परिचय

उच्चारणाचार्य 108 श्री विनम्रसागर जी महामुनिराज

हमारे उच्चारणाचार्य

कौन जानता था कि बाल्यावस्था में ‘नवरत्न’ के नाम से पुकारे जाने वाले उस बालक का तेज, वैराग्य और वाणी की मधुरता एक दिन सम्पूर्ण जैन समाज ही नहीं, बल्कि समस्त मानवता के हृदय में इतनी गहराई से बस जाएगी। वही बालक आगे चलकर समर्पण, साधना और शुद्ध उच्चारण के प्रतीक बने — परम पूज्य उच्चारणाचार्य १०८ श्री विनम्रसागर जी महामुनिराज

आपका गृहस्थ अवस्था का नाम रतनस्वरूप जैन (नवरत्न) था। आपके पिता पं. श्री मेरचन्द जी जैन, जो आगे चलकर समाधिस्थ मुनि १०८ विश्वकीर्तिसागर जी महाराज के रूप में पूज्य हुए, तथा माता श्रीमती चमेलीदेवी जैन हैं। आपका जन्म ०१ अक्टूबर १९६३ को मध्यप्रदेश के भिण्ड नगर में हुआ।

बचपन से ही तीक्ष्ण बुद्धि के धनी, आपने एम.कॉम. परीक्षा में जिले में प्रथम स्थान (डिस्ट्रिक्ट टॉपर) प्राप्त किया। आठ वर्ष तक शिक्षक पद पर रहे, प्रोफेसर बनना निश्चित था। ICSI, CA एवं PSC की तैयारियाँ भी पूर्ण हो चुकी थीं, तभी आचार्य श्री विरागसागर जी महाराज का सान्निध्य पाकर आपके जीवन में वैराग्य का प्रकाश फूट पड़ा।

आपके परिवार में विद्वता और धर्म-संस्कारों की अनुपम धारा रही है — मामाजी कलेक्टर, जीजाजी अनुसंधान अधिकारी (दिल्ली), चाचाजी बैंक मैनेजर, और परिवार के कई सदस्य शिक्षाविद् एवं डॉक्टर हैं। भिण्ड जिले से अब तक लगभग ५० मुनिजन दीक्षित हुए हैं, जिनमें लौकिक शिक्षा में आप सर्वाधिक पारंगत रहे हैं। आपके गृहस्थ परिवार से भी कई मुनिजन दीक्षित होकर जैन धर्म की सेवा में निरंतर अग्रसर हैं।

आपने ऐलक दीक्षा ०९ अगस्त १९९२ को द्रोणगिरि में और मुनि दीक्षा ०८ जून २००३ को ललितपुर में ग्रहण की। इसके पश्चात १२ दिसम्बर २०१० को बाँसवाड़ा (राजस्थान) में आपको आचार्य पद की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। आपके दीक्षा गुरु गणाचार्य श्री विरागसागर जी गुरुदेव हैं।

आपको हिन्दी, उर्दू, अंग्रेज़ी, संस्कृत, प्राकृत, ज्योतिष एवं हस्तरेखा विज्ञान का गहन ज्ञान है। आपने धवल, जयधवल, महाधवल, सिद्धांत, आगम, अध्यात्म, न्याय, नय, संस्कृत एवं प्राकृत व्याकरण, तथा चारों अनुयोगों का गहन अध्ययन किया। विशेष रूप से करणानुयोग में आपकी असाधारण प्रवीणता के कारण आपको ‘करणानुयोग केसरी’ की उपाधि से अलंकृत किया गया।

आप न केवल विद्वान बल्कि महाकवि भी हैं — शब्द विज्ञान के धनी, जिनकी रचनाओं में विज्ञान, दर्शन, मनोविज्ञान, तर्क, भक्ति और भाव का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। आपने “जीवन है पानी की बूँद” विषय पर लगभग ३५०० छंदों का अनूठा महाकाव्य रचा, जो सम्पूर्ण भारत में गूंज उठा। आपके प्रसिद्ध भजन जैसे — “कितना प्यारा तेरा दुआरा”, “धीरे-धीरे चलो जी मंदिर”, “चेतन पिंजरे वाली ना”, “कर ले आतम ध्यान बाबा” एवं “मेरा जीवन कोरा कागज” आदि ने भक्ति को जन-जन के हृदय में प्रवाहित किया।

आपने अब तक १००० से अधिक कविताएँ, ५०० भजन, ३५० उर्दू ग़ज़लें, २००० मुक्तक, १५०० पहेलियाँ, तथा २००० अंग्रेज़ी उद्धरण (English Quotations) की रचना की है। आपने अनेक स्तोत्रों का पद्यानुवाद किया तथा भक्तामर स्तोत्र को नवीन काव्यशैली में प्रस्तुत कर भक्ति और चिंतन की पराकाष्ठा दर्शाई।

आपकी ‘चौंतीस स्थान दर्शन टीका’ जैन सिद्धांत के विद्यार्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी ग्रंथ बन चुकी है। साथ ही, आपकी अन्य रचनाएँ जैसे “English & Philosophy of Karma”, “Moral Science for Children (Part I–III)”, “What is Truth”, “Know Your Future” एवं “What is Life” आज की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत सिद्ध हुई हैं। आपका अंग्रेज़ी में लिखा णमोकार महामंत्र पहली बार इस शैली में जैन जगत में प्रस्तुत हुआ — जिसे गाया भी जा सकता है और समझा भी जा सकता है।

आपकी प्रवचन शैली अद्वितीय है — स्वर में संगीत, विचारों में गहराई, और तर्क में न्याय का समन्वय। आप विरोध या आलोचना के पथ से दूर रहते हुए सरलता, सौम्यता, विद्वत्ता, विनम्रता और आगमानुकूल चर्या का उदाहरण हैं। आप तेरापंथ और बीसपंथ के मतभेदों से परे, केवल निर्ग्रन्थता के सच्चे पोषक हैं।

आपको जन-जन ‘भक्तामर वाले बाबा’ के नाम से जानता है। आपके भक्तामर शिविर और पूजन शिविर विश्वप्रसिद्ध हैं। आपने भक्तामर स्तोत्र के माध्यम से असंख्य जनों के जीवन में श्रद्धा, ऊर्जा और सकारात्मकता का संचार किया है।

आपके शुद्ध उच्चारण और संस्कृत-प्राकृत के सटीक स्वरस्थलों की अद्भुत जानकारी ने असंख्य श्रावकों को सही उच्चारण विधि सिखाई। इसी कारण, आपकी विलक्षण प्रतिभा और साधना के आधार पर आपको ‘उच्चारणाचार्य’ की उपाधि से सुशोभित किया गया — और आज जन-जन आपको उसी नाम से जानता है।

वर्तमान में आप एक वृहद् श्रमण एवं आर्यिका संघ का नेतृत्व कर रहे हैं तथा अनगिन भव्य जीवों को मोक्षमार्ग की दिशा दिखाकर उनके आत्मकल्याण का कार्य कर रहे हैं।

ऐसे सूरज और चाँद की तरह ज्योतिर्मय गुरुवर श्री विनम्रसागर जी महामुनिराज के चरणों में श्रद्धा सहित विनम्र नमोऽस्तु — नमोऽस्तु — नमोऽस्तु।

परम पूज्य उच्चारणाचार्य श्री विनम्रसागर जी महामुनिराज

जीवन यात्रा

01 अक्टूबर 1963

जन्म

📍 भिण्ड

  • नाम: रतनस्वरूप जैन (नवरत्न)
  • पिता: पं. श्री मेरचन्द जी जैन (समाधिस्थ मुनि १०८ विश्वकीर्तिसागर जी)
  • माता: श्रीमती चमेलीदेवी जैन
शिक्षा काल

शिक्षा एवं सेवा

  • एम. कॉम. (जिले में प्रथम स्थान)
  • 8 वर्ष शिक्षक पद पर सेवा
  • ICSI, CA, PSC की तैयारी पूर्ण
जनवरी 1988

ब्रह्मचर्य व्रत

📍 लावन गाँव

  • आचार्य विशुद्धसागर जी के साथ आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया।
जून 1991

सप्तम प्रतिमा

📍 पन्ना

  • पूज्य गुरुदेव से सप्तम प्रतिमा के व्रत धारण किए।
21 नवम्बर 1991

दशम् प्रतिमा

📍 श्रेयांसगिरि

  • दशम प्रतिमा के व्रत धारण कर वर्णीजी कहलाए।
09 अगस्त 1992

ऐलक दीक्षा

📍 द्रोणगिरि

  • श्रावण शुक्ला एकादशी, वीर संवत् 2048 को ऐलक दीक्षा प्राप्त की।
  • दीक्षा गुरु: गणाचार्य श्री विरागसागर जी गुरुदेव
  • नाम मिला: ऐलक विनम्रसागर जी
08 जून 2003

मुनि दीक्षा

📍 ललितपुर

  • 11 वर्ष ऐलक अवस्था के बाद मुनि पद प्राप्त किया।
  • 50,000 जनसमूह की साक्षी में प्रथम मुनि पद
  • दीक्षा गुरु: गणाचार्य श्री विरागसागर जी गुरुदेव
  • नाम मिला: मुनि श्री विनम्रसागर जी
13 फरवरी 2005

आचार्य पद घोषित

📍 कुन्थुगिरि

  • गणधराचार्य श्री कुन्थुसागर जी सहित 14 आचार्य, 200 पिच्छियों के मध्य आचार्य पद घोषित।
  • घोषणा: आचार्य भगवन् गुरुवर श्री विरागसागर जी द्वारा।
12 दिसम्बर 2010

आचार्य पद संस्कार

📍 बाँसवाड़ा (राज.)

  • मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी संवत् 2067 को आचार्य पद संस्कार।
  • स्वगुरु आचार्य श्री विरागसागर जी के वरदहस्त द्वारा।
  • नाम मिला: आचार्य विनम्रसागर जी